कुछ कहने में संकोच हो,
तो उस संकोच को समेट कर,
तराज़ू में रख देना
और दूसरे पलड़े में रखना
उस आंधी को, अशांति को
जो कुछ न कहने,
चुप रहने पर महसूस हो ।
.
तुम्हारी सांसों का चढ़ना, उतरना,
टूटना, बिखरना, फिर सिमट जाना
तराज़ू की चर्चराहट जैसा सुनाई पड़ता है ।
तुलते हुए तुम्हारे शब्द भी
कुछ यूं ही
टूटते, बिखरते, फिर सिमट कर
उन ठंडे लोहे के पलड़ों में
कैद हो जाते हैं ।
.
कुछ कहने में संकोच हो,
तो तुम कैदियों को ढूंढना ।
इन ठंडे लोहे के पलड़ों में
वो खुरच गए होंगे
एक पहचाना सा नक्शा
जो तुम्हारे मन की ओर जाता है ।
.
रास्ते में तुम्हारी चुप्पी की आंधी मिलेगी
सरसराते हुए, डराते हुए
तुम्हारा पीछा करेगी ।
तुम बेखौफ चलना, अपनी अशांति को बहलाना
और मन के द्वार पर छोड़ आना ।
लौट आना, अपने मन के भीतर ।
.
अब इतनी दूर (पास) आ ही गए हो,
तो आंगन में नीम की छांव तले,
समेट कर वह टूटे शब्द
अपनी बिखरती हुई सांसों की
डोरी में पिरो लेना ।
टांग आना उसकी खूंटी पर
यह उजड़े अल्फाज़ों की माला
जो तुम्हारे गले में कुछ
अटक सी जाती थी।
.
तुम्हारे मन के कमरे की टूटी दीवार पर
एक कील अपना उम्मीदवार ढूंढती है।
आज उस पर वो भारी तराज़ू
वापिस लटका दो ।
नाप- तोल, गुणा- भाग के
चिरागों को बुझा दो ।
.
आखिर में
आंगन में नीम की छांव तले
वीरान पड़े उस ठंडे चबूतरे पर
अपनी आंधियों को
गहरी नींद सुला दो ।
मद्धम सी हवा में
अपनी थकान भुला कर
आज थोड़ा तुम भी मुस्कुरा दो ।
– श्रेया
31/03/22