बंधन से या परछाँई से,
खुद को किससे आज़ाद करूँ?
अपने इस जर्जर जीवन से
अब किस को मैं आबाद करूँ? 

जो बुझ है गया वो राख सही,
उस राख से मैं श्रृंगार करूँ
कि जो जली नहीं उस आग से मैं
अब दीपों की मालाएँ बुनूँ? 

किस वक्त में जीना है, किस वक्त में खोना है
किस वक्त मैं यह दरयाफ़्त करूँ?
मैं बयाँ बनूँ या सवाल बनूँ
अब खुद से यह सवाल करूँ ।

-श्रेया

28 September, 2018